• 15 अगस्त : दोस्त और मुद्दों की यादें!

    15 अगस्त पर क्या लिखें? यह सवाल हर साल होता है। खुद से ही। परंपरागत तरीके से, आजादी और उसके बहुत सारे पहलुओं पर शुरुआती दौर में बहुत कुछ लिखा

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    - शकील अख्तर

    यहां यह भी बताना जरूरी कि उस समय के छोटे अखबारों के मालिक दोस्त थे। अलग-अलग विचारधाराओं के थे। असहमतियां बहुत होती थीं। खासतौर से ऐसे नाजुक मुद्दों पर। मगर कभी किसी ने लिखने से मना नहीं किया। वे एक तो दोस्त की वजह से दूसरे पत्रकारिता के उस समय के मान्य सिद्धांत की पत्रकार को अपनी मर्जी से विषय चुनने और उस पर लिखने की आजादी है का पूरा सम्मान करते थे।

    15 अगस्त पर क्या लिखें? यह सवाल हर साल होता है। खुद से ही। परंपरागत तरीके से, आजादी और उसके बहुत सारे पहलुओं पर शुरुआती दौर में बहुत कुछ लिखा।
    45 साल पहले जब दोस्तों के अखबार हुआ करते थे। तब संपादकीय से लेकर, मुख्य लेख और दूसरे विश्लेषण सब करते थे। वह पत्रकारिता का सच्चा स्वर्ण काल था। कितना तो लिखने का उत्साह होता था। और कितना वह पढ़ा जाता था। पहला पाठक तो कम्पोजिटर होता था। जिससे पास होकर निकलाना बहुत मुश्किल होता था। अगर उसे पसंद नहीं आए तो कम्पोज करके पाई कर देता था। पाई का मतलब सेटिंग को गिरा देना।

    अस्त-व्यस्त कर देना। जिसे दोबारा तैयार करवाना मुश्किल हो जाता था। हेंड कम्पोजिंग के जमाने में जिसने काम किया हो वह जानता है कि उन दिनों कम्पोजिटर का कितना महत्व होता था। अच्छे कम्पोजिटर अपने मन के राजा होते थे। और छोटे अख़बारों में तनखा से ज्यादा पत्रकार बनने के लिए काम करते थे। इसलिए उनके विचार बहुत स्ट्रांग होते थे। वैसे तो प्रगतिशीलता का जमाना था। मगर वह कुछ पत्रकारों और जैसा वे समझते थे उनके पाठकों में होती थी। मगर वह सब समझने की बात थी। माहौल में यथास्थितिवाद, प्रतिगामी तत्व उस समय भी खूब होते थे। मगर बस यही बात थी कि एक राजनीतिक माहौल प्रगतिशीलता का था। नेहरू के वैज्ञानिक मिजाज की तरफ देश को ले जाने की बात थी। हालांकि स्कूल कालेज वही डिबेटें करवाए चले जा रहे थे कि विज्ञान वरदान है या अभिशाप!

    हम अपने स्कूल कालेज के बहुत सारे वाद-विवाद जीत कर लाने वालों में थे। मगर कभी खुद वाद-विवाद से निकाले जाने वालों में भी रहे। एक वाद-विवाद में ही बोल गए कि विषय ही गलत है। विज्ञान अभिशाप हो ही नहीं सकता। मगर उन दिनों छात्र को भी इतनी स्वतंत्रता थी कि वह विषय से भी असहमति व्यक्त करते हुए बिना डरे अपनी बात कह सकता था। मगर आज वह स्कूल, कालेजों में क्या सार्वजनिक विमर्श में, टीवी पर भी विषय से असहमति नहीं जता सकता।
    तो उन दिनों स्कूल कालेज में असहमति जताते हुए पत्रकारिता तक आए हमें उस समय अपने कम्पोजिटरों की मौन असहमतियों से निपटना भारी पड़ जाता था। बोलते तो कुछ नहीं थे। मगर उनके नाराज हाव-भाव बोलते थे कि 15 अगस्त पर आपको यह सब चीजें लिखने की क्या जरूरत?

    किन बातों का विरोध होता था? मूलत: दो। सबसे ज्यादा ऐसा महिला समर्थक लेखन जिसमें पुरुष पर ज्यादा कड़ी चोट हो रही हो। महिला अधिकार, समानता, सम्मान उन दिनों तो और ज्यादा नया कान्सेप्ट था। प्रगतिशील भी उससे तालमेल बिठाने की कोशिश कर रहे थे। उसमें कुछ अति क्रान्तिकारी लिख देना, जो दोस्तों के अखबार होने के नाते हमने अपना अधिकार समझ लिया था। सामान्य स्वभाव के कम्पोजिटरों की पुरुष अहमन्यता को स्वीकार नहीं होता था। बाकी गरीब समर्थक, कमजोरों के हित में लिखे को वे पसंद करते थे। और उस वजह से जुड़ाव भी रखते थे। उनकी क्लास सिम्पैथी ( अपने जैसे लोगों के साथ हमदर्दी) होती थी। कम्पोजिटर भी उसी कमजोर वर्ग से आते थे। मगर पारंपरिक सोच इतने गहरे जड़ें जमाए होती थीं और आज तो लगता है और बढ़ गई है कि वे दूसरे कमजोर (महिला) को अपनी संवेदना में शामिल कर ही नहीं पाते थे। आर्थिक समानता के पहलू पर मुस्तैदी से साथ खड़े होने वाले दूसरी समानताओं के सवाल पर हिलने लगते थे।

    ऐसा ही महिला के बाद दूसरा विषय जिसे पास करवाना और ज्यादा मुश्किल होता था। वह था- दलित समर्थन। इसमें पिछड़ा भी जोड़ सकते हैं। यहां बड़ी मजेदार स्थिति होती थी। दलित और पिछड़ा सिर्फ अपनी जाति के आइने में ही लिखे का अर्थ ढूंढते थे। आश्चर्य इतनी दलित, ओबीसी चेतना आ जाने के के बाद भी, सामाजिक न्याय का सिद्धांत स्थापित हो जाने के बाद भी आज दलित पिछड़ा संवेदना एक नहीं हो रहीं। बल्कि उनमें आपस में मतभेद के मुद्दे बढ़ते जा रहे हैं।

    यहां यह भी बताना जरूरी कि उस समय के छोटे अखबारों के मालिक दोस्त थे। अलग-अलग विचारधाराओं के थे। असहमतियां बहुत होती थीं। खासतौर से ऐसे नाजुक मुद्दों पर। मगर कभी किसी ने लिखने से मना नहीं किया। वे एक तो दोस्त की वजह से दूसरे पत्रकारिता के उस समय के मान्य सिद्धांत की पत्रकार को अपनी मर्जी से विषय चुनने और उस पर लिखने की आजादी है का पूरा सम्मान करते थे। व्यवसायिक नुकसान भी होते थे। मगर फिर भी कुछ नहीं कहते थे। बस एक दो-दिन सिगरेट के पैसे देने से रोकने की कोशिश नहीं करते थे।

    हम नाम लिख ही देते हैं। प्रिय दोस्त रामू ( रमाकांत गुप्त) हम तुम्हें कभी नहीं भूले। बहुत याद आते हो। हमारे शहर की सबसे मशहूर प्रेस थी इनकी। संगम प्रेस। बड़ा नाम था। कृपणता में भी। लोग आश्चर्य करते थे उनके साथ काम करने पर। और खास तौर से सिगरेट मंगवाने पर। मशहूर था कि रामू के पिताजी किसी को बीड़ी भी नहीं पिलाते। मगर हमारे लिए चाय, सिगरेट और अगर खाने का टाइम हो गया तो लंच सब की व्यवस्था होती थी। रामू हमारा पारिवारिक मित्र था। हमारे जीवन की दूसरी सक्रियताएं देखता था। सच्चा शुभचिंतक। तो जब उसके अख़बार में बैठकर हम सिगरेट, पान मंगाने के लिए किसी को पैसे देते थे। तो वह देने नहीं देता था। उसके हिसाब से महंगा सौदा। पैसे की वजह से नहीं। पैसे वाले तो बहुत थे वे। मगर खर्च करने वाले नहीं माने जाते थे इसलिए। घर में सबका प्रिय था। हमारी शिकायतें होती थीं। एक बार किसी ने कहा कि सिगरेट के लिए समझाते क्यों नहीं हो? रामू बोला हम क्या समझाएंगे? हमें तो खुद इन्हें सिगरेटें मंगा कर पिलानी पड़ती हैं। रामू विलुप्त ही हो गया। हम शहर दर शहर बदलते रहे। हर जगह रामू आता रहा कि यहां से अख़बार निकालें? और एक दिन पता चला कि वह गायब है। किसी को कुछ नहीं मालूम कि कहां गया? क्यों गया? बहुत सालों तक हमें लगता रहा कि वह आएगा। कहेगा कि बहुत पैसा कमा लिया। बताओ अब कहां से अख़बार निकालना है। एक बड़ा अख़बार ही उसका सपना था।

    ऐसे ही एक और दोस्त याद आ रहा है। वीरेन्द्र कुढ़रा। लेखक, कहानीकार। उसके साथ जाने कितना लिखा। 15 अगस्तों पर रेडियों के लिए उसने कितने नाटक झलकियां लिखीं, हमसे लिखवाईं। लोकल अखबारों से लेकर देश की हर पत्र-पत्रिका के लिए भी। उसे बहुत शौक था लिखने का। शिक्षा विभाग में था। उसके स्कूल, आफिस हर जगह बैठकर बहुत लिखा। उसकी टाइपिंग तेज थी। हम बोलते जाते थे वह लिखता था। 15 अगस्त छुट्टी का दिन। उसके स्कूल पहुंच जाते थे। टाइप राइटर वहीं हुआ करते थे। चपरासी हैरान क्या स्कूल खुलेगा। वीरेन्द्र कहता था नहीं। चाय बनाओ और बस छुट्टी। छुट्टी तो उसकी बेचारे की क्या होती थी। वीरेन्द्र चाय बहुत पीता था।
    असली काम करने के दिन थे वह। शाम को बहुत कुछ लिखा हुआ लेकर आते थे। और ठीक ही लिखा होता था। सभी बड़ी पत्रिकाओं में जिनमें दिनमान भी शामिल था, छप जाता था। वीरेन्द्र नहीं रहा। इसी साल कैंसर से लड़ते हुए चला गया।

    15 अगस्त पर देखिए क्या लिखने बैठे थे। क्या लिख गया। अख़बार और लेखन की दुनिया में खो गए। एक और पुराना दोस्त मुकेश कटारे। हमारा लिखा हुआ सबको पढ़वाता था। दतिया के नगर सेठ का लड़का। अगर किसी किताब का जिक्र कर दिया तो वह कुछ ही दिनों में हमारे पास होती थी। ऑन लाइन का तो जमाना था नहीं। ग्वालियर, दिल्ली किसी से कहना पड़ता था। ग्वालियर तो वह आदमी दौड़ा देता था। रामू कभी-कभी व्यंग्य करता था कि बिगाड़ तो मुकेश रहा है। मुकेश सोने-चांदी का कारोबारी, ज्वेलर। शाह खर्च। शाम की महफिलों का परमानेंट आयोजक। वह भी नहीं रहा।

    आज आप जब लिखते हो तो किन दोस्तों ने उसके लिए क्या-क्या किया और किन मुद्दों ने आपको और ज्यादा पढ़ने, लिखने के लिए प्रेरित किया वह सब याद आना अचानक तो है मगर अनायास नहीं।

    एक माहौल था छोटे शहरों से लेकर बड़े शहर सब जगह। लिखने-पढ़ने का। डर का तो खैर कहीं सवाल ही नहीं। भविष्य की चिंता भी नहीं होती थी। भविष्य अपना सोचते ही नहीं थे। सबका सोचते थे। दोस्तों के सपने भी साथ ही जुड़े होते थे। वह माहौल होता था। जो देश बना रहा था। युवाओं का निर्माण कर रहा था। मुद्दे स्पष्ट हो रहे थे। जैसा लिखा महिला और सामाजिक न्याय। वह धुंधले थे। आज उसी समय के आलोक में प्रकाशमान हुए हैं।
    दोस्त और मुद्दे कभी नहीं मरते। हमेशा याद रहते हैं।

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